जीवन के बोझ से अनजान था, एक नन्हा पौधा बड़ा सुनसान था,। बोला लड़खड़ाई तुतलाती जुबाँ से, पूछने लगा अपनी गरीब माँ से, अम्मा!सब बधाई दे रहें हैं भला ये क्या है? कुछ तो बतलाओ,आखिर मदर्स डे क्या है? माँ भी थी भोली, तपाक से बोली। कहीं हवेली हैं तो कहीं बरबस्त घौंसले है। मेरे बच्चे ये सब अमीरों के चोंचले हैं। माँ का दिन तो बस हम दुखियों का है, और ये मदर्स डे व्हाट्सप और फेसबुकियों का है। इतना कहकर वो आंसू पोछने लगी, जली रोटियों को देखकर कुछ सोचने लगी। चूल्हा पुराना था, आग भी थकने लगी, उधेड़बुन से कसमसाई आंखे टपकने लगी। आहिस्ता माँ ने खिड़की खोली, सर पर हाथ रखकर लल्ले से बोली, ये सब है समय काटने का बहाना, कितना ज़रूरी है यूं कोई डे मानना। मेरे लाला बस इतना जान ले ज़रा हकीकत को पहचान ले, बच्चे अगर काबिल ही होते तो बुढ़ापे में ग़म न होते, दरवाजों से औलाद को निहारते इतने वृद्धाश्रम न होते। मदर्स डे