पहले ये आँसू आँख क़े बाहर गिरा करता था. अब ये आँसू बहता नहीं था दिल मे उतर जाता था दरिया ज़ब बहा तो उसने नदीं क़ी शक्ल अख्तियार कर ली शायद थोड़ा और बढ़ता तो समुन्द्र भी बन सकता था दर्द को अंदर ही अंदर पीने कि कैफियत समझ आ गई ज़ब वही दर्द एक दिन नासूर बन क़े उभर गया था चुहल भरी शरारते हमसे अक्सरहो जाया करती थीं तभी तो यही शरारतें प्यार बनी जबकि यही प्यार इबादत भी बंन सकता था मंजिले खुद बखूद चल कर सामने आ गई थीं मेरे इसलिए मेरे अगले सफऱ पर स्सवालिया निशां लग गया था ©Parasram Arora स्वालिया निशान