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कुंदन सा दमक रहा नभ, देख धरा मन दीप जलाती। इस छोर

 कुंदन सा दमक रहा नभ,
देख धरा मन दीप जलाती।
इस छोर से उस छोर तक,
पुलक से भर भर जाती।
जैसे हो बेल पल्लवित,
कुसुमित नव अंकुरों से,
हुई निहाल नवयौवना सी।
है सृजन को अभिलाषी,
नभ देखो नवपौरुष सा।
प्यासी अकुलाती सकुचाती,
सुवर्ण किरणों से ताप मिटाती।
शत शत नव जीवन को
आशीषों से भर देती।
कुंदन सा दमक रहा नभ
देख धरा मन दीप जलाती।

©DrNidhi Srivastava
  धरा-नभ #प्रकृति_प्रेम