फिर एक लड़ाई।। हाँ, देखो, फिर से, वो कवच, सब धार मैं, लड़ने निकला, अनजान शत्रु से, अनजान व अदृश्य, कितनी ही जानें लीलता, रौंदता भागता सरपट, अपने आवेग में समेटता, जग दुनिया संसार और सृष्टि। आँख लहू लाल जैसे ओला वृष्टि। इंसान भला यहाँ क्या टेकता, हे कपटी मैं हूँ निष्कपट, भयग्रस्त भयभीत था, निर्जीव देह अस्पृश्य, किससे जा क्या कहे, दर्द है पिघला, आया हार मैं, एक सच, फिर से, देखो, हाँ। ©रजनीश "स्वछन्द" ©रजनीश "स्वच्छंद" #India