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बुद्धि विकास के विनाशकारी शत्रु


         बुद्धि विकास के विनाशकारी शत्रु 
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     क्योंकि बुद्धि से एक कदम आगे आत्मा होती है ।
 और बुद्धि से एक कदम पहले मन होता है 
 और मन से पहले 10 इन्द्रियां होती है।
 इन्द्रियों से पहले काम/ वासना होती है ।
इसके दो - दो रूप होते हैं 
 आन्तरिक पृवति (वासना,शोक)
बाहरी पृवति (मोह और काम)
  यही हमारी बुद्धि का विनाशक शत्रु भी होता है।
 यही ही हमारी बुद्धि को विकसित होने में 
  महान शत्रु भी बने रहते है निरंतर । 
     समस्त संसार में इन चार से अज्ञान होने पुष्टि भी हैं।
  समस्त धर्मों में सर्वप्रथम महान नहीं होने और
 प्रमुख अज्ञान  होने के कारण भी है।
  जिसके बल पर ही महान नारी शक्ति गुण और
     पुरुषार्थ शक्ति गुण निरंतर लुप्त होते जा रहे संसार में ।
   अपने श्रेय की खुद ही पहचान खोते जा रहे ।
   इस संसार में रहकर भी खुद ही अपने शरीर 
   रूपी पात्र को जर्जर हालत में कर रहे है।
   हे समस्त पृथ्वी वासियों आप ।
   यह श्री गीता जी के चौथे श्लोक का गुप्त रहस्य भाव है।

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