सजता रहा संवरता रहा आईने को रोज देख क़र अखररहाहै मुझे अब अपना नया रूप देख क़र सिडिया चढ़ते गए और खुद पर नाज़ भी करते रहे चारों खाने चित्त हुए खुद को बुलंदीयों से नीचे गिरा देख क़ऱ. l कितनी भी मुक़्क़मल शख्सियत क्यों न हो कमी फिर भी रहती है. अक्स तो सबका बिखरता हीहै टूटे आईने को देंख क़रl लादते चले गए हम मरज पर मरज उम्र क़े बढ़ने पर फिर एकदिन हम दुखी हुए अपने को अधमरा देखकर ©Parasram Arora सिड़ियाँ.......