यादों के परिंदो कों ज़ब मैं मनके पिंजरे से रिहा करता हूं मुझे लगता है जैसे अपना खजाना मुफ्त में लुटा रहा हूँ ज़ब भी की है कोशिश खुद से खुद कों जुदा करने की मैंने लगता है जैसे मैं खुद के और करीब आ गया हूं मुआफी माँगने की आदत मैंने अपने बुजर्गो से सीखी है इसिलए शायद मैं नई गलतियां करने से डरता भी नही हूं मुझे परहेज़ नही किसी की भी सलाह निसंकोच . ले लेता हूं पर मेरा मन ज़ो कहता है मैं वही कर गुजरता हूं ©Parasram Arora यादो के परिंदे