एक प्रश्न रह-रह कर उठता, है मन में मेरे भगवान्, हो जाता है हृदय व्यथित और छा जाता है अज्ञान, द्रवित हो रहे नेत्र विरह में, हाय मानस क्षुब्द अजान, जीवन की इस मृगतृष्णा में, बंधा हुआ हर इन्सान। मात, पिता और भ्रात-सखा, सब साथ छोड़ते जाएँगे, जीवन भर जो साथ चले थे, तब कहाँ उन्हें हम पाएँगे, पतझड़ के वृक्षों की भाँति, बस जड़वत हम रह जाएँगे, टूट-टूट कर जब टहनी से, जब सब पत्ते उड़ते जाएँगे। प्रश्न नहीं कि क्यों बँधता है, इस मृगतृष्णा में इन्सान, प्रश्न नहीं क्यों होता है,जीवन मृत्यु का र्निमम संग्राम, प्रश्न नहीं क्यों होते हैं नेत्र अविरल भर दु:ख अन्जान, प्रश्न नहीं कि क्यों होता है,प्रेम भाव का यह परिणाम। प्रश्न एक है उस भगवन से, जिसने किया विश्व र्निमाण, दी जिसने यह मनुष्य योनि है, और दिया है जीवन दान, हृदयरहित हम क्या बुरे थे, जो पहुंचना था इस सोपान, जीवन की इस मृगतृष्णा में, हाय बंधा हुआ हर इन्सान।