गांव ही है मेरे खेत अब मुझे खाने लगे थे, फसलें इंच इंच अन्दर जाने लगे थे, कर्जों ने बंदी बना के छोड़ दिया, गावों ने तो मुझसे ही मुंह मोड़ लिया। खेत बिसरा और घर सुना कर दिया, मैंने अपने घर गांव को अनसुना कर दिया, पैसे की थी चाह तो कदम शहरी कर दिया, भाड़े के मकान से कर्ज सारे बरी कर दिया, मजदूरी जिंदा फुटपाथ पे बिखरी जिंदगी थी, सड़कों की ओट लेके सांसे बंदी थी, जैसे तैसे कट जाते थे दिन रातें अभी जिंदा थी, पेट तो पल जाता था पर जिंदगी शर्मिंदा थी। ये कैसा रोग है कि जान बचाना आफत है, रोग से बचने के लिए भूखे मरना शराफत है, घर से बाहर निकलने पर पुलिस तैनात है, कष्ट खत्म नहीं होता कैसी ये काली रात है। चल पड़े है कदमों से गाँव की ओर, ना मंजिल दिखी ना रास्ते का छोर, शहर सदमे में है गांव तो ममता की छांव में ही है, जिंदगी शहर में है पर जान तो बस गाओं ही है। गांव ही है मेरे खेत अब मुझे खाने लगे थे, फसलें इंच इंच अन्दर जाने लगे थे, कर्जों ने बंदी बना के छोड़ दिया, गावों ने तो मुझसे ही मुंह मोड़ लिया। खेत बिसरा और घर सुना कर दिया,