हम जिसे फूल समझकर संजोने बैठे, वो बिखरता गया, ख़ुशबू बनके उड़ता गया। तेरी एक छूअन जिसे छू ले बस, वो कांटा भी गुल बनके महकता गया। हमने चाहा जिसे, वो नसीबों में ढल गया, हर राह में खोया, हर मोड़ पर बदल गया। तू जो नज़र भर के देख ले उसे, वो भटकी हुई राहों का मंज़र बन गया। हम जिसे चाँद समझकर निहारा किए, वो घटता गया, धुंध में कहीं खोता गया। तेरी किरण जिसे बस छू भर ले, वो अमावस भी पूनम सा होता गया। हमने चाहा जिसे, वो कहानी बन गया, हर सफ़र में भटकता सा निशानी बन गया। तू जो इक बार सहारा दे उसे, वो बिखरा हुआ लम्हा भी ज़िंदगानी बन गया। ©नवनीत ठाकुर #नवनीतठाकुर