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कभी मैं ख़त को फाड़ता हूं फिर मैं टुक

कभी   मैं   ख़त   को   फाड़ता हूं
फिर   मैं    टुकड़े    संभालता   हूं 

मुझे  तुमको  भुला  देना  है मगर
   अभी कुछ रोज़ जीना चाहता हूं ।।

©Hrishikesh Shukla
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