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कि लगा बचपन में यू अक्सर अँधेरा ही मुकद्दर है मगर

कि लगा बचपन में यू अक्सर अँधेरा ही मुकद्दर है
मगर माँ होसला देकर यू बोली तुम को क्या डर है।

मै अपनापन ही अक्सर ढूंढता रहता हूं रिश्तों में
तेरी निश्छल सी ममता कहीं मिलती नहीं माँ।

गमों की भीड़ में जिसने हमें हंसना सिखाया था
वह जिसके दम से तूफानों ने अपना सिर झुकाया था

किसी भी जुल्म के आगे, कभी झुकना नहीं बेटे
सितम की उम्र छोटी है मुझे माँ ने सिखाया था।

भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं माँ
तेरी हाथों की नर्माहट कहीं मिलती नहीं माँ।

मेरे तन पर ला दे फिरता दुसाले रेशमी
लेकिन तेरी गोदी की गर्माहट कहीं मिलती नहीं माँ।

तैरती निश्छल सी बातें अब नहीं है माँ
मुझे आशीष देने को अब तेरी बाहें नहीं है माँ।

मुझे ऊंचाइयों पर सारी दुनिया देखती है
पर तरक्की देखने को तेरी आंखें नहीं है बस अब माँ।

©Rahul Bhardwaj
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