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खामोशी! खलती है, खेलती है, खोलती है और खा जाती है,

खामोशी!
खलती है, खेलती है, खोलती है और खा जाती है,
मेरी तुझसे, तेरी मुझसे, मेरि मुजे और तेरी तुझे।
कभी कभी जरूरी होती है, 
जानने में, मानने में, जोड़ने में, और तोड़ने में,
स्वयं को, सत्य को, संसार को और स्वप्न को!
कभी कभी द्योतक है!
छल की, आने वाले कल की, अनकही बातों की, और अकेली रातों की!
कभी कभी रोमांचक है!
प्रेम के शुरुआत की, अधूरी सी बात की, उसके स्पर्श की,
और सुंदर से दृश्य की!
खामोशी!

©Akhil  Sanadhya
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