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अकेला नए शहर में हर एक शख़्स पराया था खेल था क़ि

अकेला

नए शहर में हर एक शख़्स पराया था 
खेल था क़िस्मत का जो यहाँ पे लाया था

अपने लिए नया रास्ता ढूँढा था मैंने 
क़िस्मत ने जब अपना हाथ छुड़ाया था

मुझ पर हँसने वाले यहाँ भी आ पहुँचे 
जिन से कल अपना दामन बचाया था

बादल से पानी का रिश्ता नया नहीं 
आँखों में अश्कों को आज छुपाया था

खोट भरा है लोगों की सोच समझ में 
भोले भाले लोगों को जहर पिलाया था

आये दिन निर्दोष पे हमला होता है 
भीड़ में केवल मैंने शोर मचाया था

किधर से आया कहाँ गया नफ़रत का जुलूस 
सड़क किनारे खुद को अकेला पाया था

©Shubhanshi Shukla
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