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भूल के सारी बंदिश को , आज दिल की बाते सुनते है, कु

भूल के सारी बंदिश को , आज दिल की बाते सुनते है,
कुछ कच्चे-पक्के धागो से, बिखरी यादो को बुनते है ||
हम नायक भी खलनायक भी, इस खुद की लिखी कहानी के ,
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है |
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है ||
चाय की उस उजरि टपरी पर फिर घूम के आते है, 
सूना है लोग अब भी वंहा चाय संग मट्ठी ही खाते है |
क्या टॉयलेट के बहार, अब भी कतारे लगती होंगी ,
क्या सरोजनी की लड़किया, अब भी वहां सजती होंगी |
क्या कोई फिर से प्लेट में , खाना छोड़ कर जाता होगा |
क्या पनिशमेंट में अब भी, खेम चंद पगलाता होगा ||
याद करो क्या दिन थे वो भी , जब रिंकू मेश चलाता था ,
सरा गला खाना खा कर भी, तब अपना दिन कट जाता था |
बिस्तर पर सोते ही अपने, सरप्राइज वेल बज जाते थे | 
बिना सेविंग पकडे गए तो , होज कंधे पर सज जाते थे |
उस्तादों की उस्तादी भी तब, कहाँ समझ में आती थी ,
उन् सब को मिल कर बस, अपनी ही मारनी होती थी |
किसी के घर से आया खाना, हम खूब लूट कर खाते थे |
कभी कभी छोटी बातो पर, तब काजू भी बन जाते थे |
कुछ की बनी कहानी थी, कुछ अब तक वंहा बेचारा था ,
थे हम कवारे बहुत ही तनहा, बस हाथो का बचा सहारा था |
कुछ रंग थे जो अपने दामन में, वो चुरा गया बंजारा था ,
खुला खुला शौचालय भी, तब कितना हमको प्यारा था ||
स्कोप मीनार से किस वर्कर ने,किसको आँखे मारी थी |
इतना खाना क्यों बचा थाल में, किसकी ये अय्यारी थी ,
वक़्त ने साधा एक नज़र से , एक जंग की तब तैयारी थी 
वो बड़े जोड़ की लात पेट में, किसने चार्ली को मारी थी ||
रिंगटोन में किसकी फ़ोन पर, कौन घास घास चिल्लाता था,
वो कौन था जो जरा जरा कर के, पूरा खाना खा जाता था ,
किसने अपनी ड्राइविंग में, गाडी दिवार पर चढ़ाई  थी, 
रेस्क्यू करके खोखहर ने, तब किसकी जान बचाई थी ||
आयोडेक्स की मालिश थी , कोई घुटनो पर तेल लगता था ,
उस्तादों की चाट चाट कर , पांडे अच्छे नंबर पाता था |
राका का वो सावधान , तब सबका दिल दहलाता था ,
बेरोजगारी के उस दौर में , भाई साब 17 माल घुमाता था |
दिल्ली की सब लड़की राका पर अपनी जान लुटाती थी |
मधुवन में सब मिलकर उसे, चिन्गोटी कटा करती थी |
हर शनि और रविवार को , जब सब गायब हो जाते थे |
तब हम चारो ही बैठ अकेले, मकरा मारा करते थे  ||
उन् सारी यादो को फिर से, दुहराने को दिल करता है,
आये बुढ़ापा उससे पहले , जी लेने को दिल करता है |
फास्मा की दीवारों पर हमने, मिलकर लिखी कहानी थी ,
नौ महीने की थी वो ट्रेनिंग, बस उतनी ही मेरी जवानी थी ||
कैद हुए क्यों हम दीवारों में, चल ना यार निकलते है ,
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है ||
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है || Chal Na Yaar Fir Milte hai
भूल के सारी बंदिश को , आज दिल की बाते सुनते है,
कुछ कच्चे-पक्के धागो से, बिखरी यादो को बुनते है ||
हम नायक भी खलनायक भी, इस खुद की लिखी कहानी के ,
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है |
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है ||
चाय की उस उजरि टपरी पर फिर घूम के आते है, 
सूना है लोग अब भी वंहा चाय संग मट्ठी ही खाते है |
क्या टॉयलेट के बहार, अब भी कतारे लगती होंगी ,
क्या सरोजनी की लड़किया, अब भी वहां सजती होंगी |
क्या कोई फिर से प्लेट में , खाना छोड़ कर जाता होगा |
क्या पनिशमेंट में अब भी, खेम चंद पगलाता होगा ||
याद करो क्या दिन थे वो भी , जब रिंकू मेश चलाता था ,
सरा गला खाना खा कर भी, तब अपना दिन कट जाता था |
बिस्तर पर सोते ही अपने, सरप्राइज वेल बज जाते थे | 
बिना सेविंग पकडे गए तो , होज कंधे पर सज जाते थे |
उस्तादों की उस्तादी भी तब, कहाँ समझ में आती थी ,
उन् सब को मिल कर बस, अपनी ही मारनी होती थी |
किसी के घर से आया खाना, हम खूब लूट कर खाते थे |
कभी कभी छोटी बातो पर, तब काजू भी बन जाते थे |
कुछ की बनी कहानी थी, कुछ अब तक वंहा बेचारा था ,
थे हम कवारे बहुत ही तनहा, बस हाथो का बचा सहारा था |
कुछ रंग थे जो अपने दामन में, वो चुरा गया बंजारा था ,
खुला खुला शौचालय भी, तब कितना हमको प्यारा था ||
स्कोप मीनार से किस वर्कर ने,किसको आँखे मारी थी |
इतना खाना क्यों बचा थाल में, किसकी ये अय्यारी थी ,
वक़्त ने साधा एक नज़र से , एक जंग की तब तैयारी थी 
वो बड़े जोड़ की लात पेट में, किसने चार्ली को मारी थी ||
रिंगटोन में किसकी फ़ोन पर, कौन घास घास चिल्लाता था,
वो कौन था जो जरा जरा कर के, पूरा खाना खा जाता था ,
किसने अपनी ड्राइविंग में, गाडी दिवार पर चढ़ाई  थी, 
रेस्क्यू करके खोखहर ने, तब किसकी जान बचाई थी ||
आयोडेक्स की मालिश थी , कोई घुटनो पर तेल लगता था ,
उस्तादों की चाट चाट कर , पांडे अच्छे नंबर पाता था |
राका का वो सावधान , तब सबका दिल दहलाता था ,
बेरोजगारी के उस दौर में , भाई साब 17 माल घुमाता था |
दिल्ली की सब लड़की राका पर अपनी जान लुटाती थी |
मधुवन में सब मिलकर उसे, चिन्गोटी कटा करती थी |
हर शनि और रविवार को , जब सब गायब हो जाते थे |
तब हम चारो ही बैठ अकेले, मकरा मारा करते थे  ||
उन् सारी यादो को फिर से, दुहराने को दिल करता है,
आये बुढ़ापा उससे पहले , जी लेने को दिल करता है |
फास्मा की दीवारों पर हमने, मिलकर लिखी कहानी थी ,
नौ महीने की थी वो ट्रेनिंग, बस उतनी ही मेरी जवानी थी ||
कैद हुए क्यों हम दीवारों में, चल ना यार निकलते है ,
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है ||
उन् हसीं पलो को फिर जीने को, चल ना यार फिर मिलते है || Chal Na Yaar Fir Milte hai