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मैं और तुम प्रकृति के दो आयाम, तुम ऊंचाई और मैं वि

मैं और तुम प्रकृति के दो आयाम, तुम ऊंचाई और मैं विस्तार। जब भी बात आई विकास और सृजन की, मैं और तुम साथ खड़े हो गए। तुम शीर्ष की ओर बढ़े और मैं मजबूती से आधार पकड़े जमी रही। तुम्हें चाह शीर्ष की और मुझे चाहिए विस्तार। जब तुम आसमान चूमने की चाहत में चढ़ते चले गए, लगे भूलने अस्तित्व साथ का, और साथ ही मुझे भी, तो मैं तुम्हें पाने की धुन में बौराई-सी बढ़ती चली गयी। वो ऊंचाइयाँ मेरे हक़ में नहीं थी, न मुझे कभी उनकी लालसा थी, ये तो तुम्हें पाने, तुम्हारे साथ होने की जिद थी जिसने ये चढ़ाई भी पूरी करवा दी।
(Read the caption) मैं और तुम साथ चले, रहे ढूंढते अनवरत 
अंधेरों से उजाले तक, कभी छुप गए,
विशाल वट के पीछे, कभी गुफाओं कंदराओं में,
देखा निर्जन और घने जंगल, रहे घूमते वन उपवन,
फिर मैं ठहर गई, सृजन का आधार लेकर,
सुरक्षा और संरक्षण के लिए, 
समेट लिया स्वयं को एक कंदरा में, 
कान लगाकर सुनती रही,
मैं और तुम प्रकृति के दो आयाम, तुम ऊंचाई और मैं विस्तार। जब भी बात आई विकास और सृजन की, मैं और तुम साथ खड़े हो गए। तुम शीर्ष की ओर बढ़े और मैं मजबूती से आधार पकड़े जमी रही। तुम्हें चाह शीर्ष की और मुझे चाहिए विस्तार। जब तुम आसमान चूमने की चाहत में चढ़ते चले गए, लगे भूलने अस्तित्व साथ का, और साथ ही मुझे भी, तो मैं तुम्हें पाने की धुन में बौराई-सी बढ़ती चली गयी। वो ऊंचाइयाँ मेरे हक़ में नहीं थी, न मुझे कभी उनकी लालसा थी, ये तो तुम्हें पाने, तुम्हारे साथ होने की जिद थी जिसने ये चढ़ाई भी पूरी करवा दी।
(Read the caption) मैं और तुम साथ चले, रहे ढूंढते अनवरत 
अंधेरों से उजाले तक, कभी छुप गए,
विशाल वट के पीछे, कभी गुफाओं कंदराओं में,
देखा निर्जन और घने जंगल, रहे घूमते वन उपवन,
फिर मैं ठहर गई, सृजन का आधार लेकर,
सुरक्षा और संरक्षण के लिए, 
समेट लिया स्वयं को एक कंदरा में, 
कान लगाकर सुनती रही,

मैं और तुम साथ चले, रहे ढूंढते अनवरत अंधेरों से उजाले तक, कभी छुप गए, विशाल वट के पीछे, कभी गुफाओं कंदराओं में, देखा निर्जन और घने जंगल, रहे घूमते वन उपवन, फिर मैं ठहर गई, सृजन का आधार लेकर, सुरक्षा और संरक्षण के लिए, समेट लिया स्वयं को एक कंदरा में, कान लगाकर सुनती रही,