मैं और तुम साथ चले, रहे ढूंढते अनवरत
अंधेरों से उजाले तक, कभी छुप गए,
विशाल वट के पीछे, कभी गुफाओं कंदराओं में,
देखा निर्जन और घने जंगल, रहे घूमते वन उपवन,
फिर मैं ठहर गई, सृजन का आधार लेकर,
सुरक्षा और संरक्षण के लिए,
समेट लिया स्वयं को एक कंदरा में,
कान लगाकर सुनती रही,