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#शृंगार छंद# शीर्षक - "मित्र" ••••••••••••••••••••

#शृंगार छंद# शीर्षक - "मित्र"
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1-
कर्ण  था  दुर्योधन  का  मित्र।
यही  है  उसका  श्रेष्ठ  चरित्र।।
बड़ा  उद्भट  योद्धा  था  कर्ण।
सालता था जिसको निज वर्ण।।
2-
कर्ण सा होगा कभी न मित्र।
वीर दानी था  बड़ा  विचित्र।।
मित्रता  का  था  जो पर्याय।
सभी की  ऐसी  ही  है राय।।
3-
कर्ण से वीर हुए अति अल्प।
लिया था जिसने दृढ़ संकल्प।।
दिया था गुरु ने उसको शाप।
छिपाया वर्ण  यही था पाप।।
4-
कर्ण  था  परसराम  का  शिष्य।
मिला था शापित जिसे भविष्य।।
ज्ञात  उसको  था  यह  अंजाम।
न  विद्या  आएगी   कुछ  काम।।
5-
कर्ण  कहलाता  था  राधेय।
कह  दिया  पांचाली ने हेय।।
कर्ण का देने को तब साथ।
बढ़ाया   दुर्योधन  ने   हाथ।।
6-
उठा   दुर्योधन   बोला  कर्ण।
बदल   देता  हूँ   तेरा  वर्ण।।
दिया तब उसको अंग प्रदेश।
कर्ण को घोषित किया नरेश।
7-
कर्ण पर चढ़ा मित्र का कर्ज़।
निभाया सदा  कर्ण ने फ़र्ज़।।
ज्ञात जब हुआ जन्म का भेद।
हुआ तब उसके मन में खेद।।
8-
कर्ण था  दानी बहुत महान।
इंद्र ने  गुप्त  रखी  पहचान।।
कर्ण से माँग लिया था दान।
भेद यह कर्ण गया था जान।।
9-
कवच कुंडल का  देकर दान।
न उसको  कोई हुआ गुमान।।
पूर्ण अंजाम  लिया था जान।
वचन का किंतु रखा था मान।।
10-
कर्ण पर वक़्त हुआ जब वक्र।
धँसा तब उसके रथ का चक्र।।
उसे  तब  याद न आया ज्ञान।
पार्थ ने  किया  वाण  संधान।।
11-
कर्ण  को  लगा  पार्थ  का  वाण।
मित्र  की   खातिर   त्यागे  प्राण।।
मित्रता   की   है   कर्ण  मिसाल।
हृदय था जिसका बहुत विशाल।।

#हरिओम श्रीवास्तव#

©Hariom Shrivastava #WForWriters
#शृंगार छंद# शीर्षक - "मित्र"
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1-
कर्ण  था  दुर्योधन  का  मित्र।
यही  है  उसका  श्रेष्ठ  चरित्र।।
बड़ा  उद्भट  योद्धा  था  कर्ण।
सालता था जिसको निज वर्ण।।
2-
कर्ण सा होगा कभी न मित्र।
वीर दानी था  बड़ा  विचित्र।।
मित्रता  का  था  जो पर्याय।
सभी की  ऐसी  ही  है राय।।
3-
कर्ण से वीर हुए अति अल्प।
लिया था जिसने दृढ़ संकल्प।।
दिया था गुरु ने उसको शाप।
छिपाया वर्ण  यही था पाप।।
4-
कर्ण  था  परसराम  का  शिष्य।
मिला था शापित जिसे भविष्य।।
ज्ञात  उसको  था  यह  अंजाम।
न  विद्या  आएगी   कुछ  काम।।
5-
कर्ण  कहलाता  था  राधेय।
कह  दिया  पांचाली ने हेय।।
कर्ण का देने को तब साथ।
बढ़ाया   दुर्योधन  ने   हाथ।।
6-
उठा   दुर्योधन   बोला  कर्ण।
बदल   देता  हूँ   तेरा  वर्ण।।
दिया तब उसको अंग प्रदेश।
कर्ण को घोषित किया नरेश।
7-
कर्ण पर चढ़ा मित्र का कर्ज़।
निभाया सदा  कर्ण ने फ़र्ज़।।
ज्ञात जब हुआ जन्म का भेद।
हुआ तब उसके मन में खेद।।
8-
कर्ण था  दानी बहुत महान।
इंद्र ने  गुप्त  रखी  पहचान।।
कर्ण से माँग लिया था दान।
भेद यह कर्ण गया था जान।।
9-
कवच कुंडल का  देकर दान।
न उसको  कोई हुआ गुमान।।
पूर्ण अंजाम  लिया था जान।
वचन का किंतु रखा था मान।।
10-
कर्ण पर वक़्त हुआ जब वक्र।
धँसा तब उसके रथ का चक्र।।
उसे  तब  याद न आया ज्ञान।
पार्थ ने  किया  वाण  संधान।।
11-
कर्ण  को  लगा  पार्थ  का  वाण।
मित्र  की   खातिर   त्यागे  प्राण।।
मित्रता   की   है   कर्ण  मिसाल।
हृदय था जिसका बहुत विशाल।।

#हरिओम श्रीवास्तव#

©Hariom Shrivastava #WForWriters