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कितनी ही पीड़ाएँ हैं जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं ऐ

कितनी ही पीड़ाएँ हैं जिनके लिए 
कोई ध्वनि नहीं  
ऐसी भी होती है स्थिरता 
जो हूबहू किसी दृश्य में बँधती नहीं 
ओस से निकलती है 
सुबह मन को गीला करने 
की ज़िम्मेदारी उस पर है 
शाम झाँकती है बारिश से बचे-खुचे को भिगो जाती है 
धूप धीरे-धीरे जमा होती है और अंतस  झुलसाती है 
माथा चूमना किसी की आत्मा चूमने जैसा है ,,,
कौन देख पाता है आत्मा के गालों को सुर्ख़ होते ....!
जिस तरह वृहद आकाश की लक्षणा चूमती है 
समुद्र की नमक से पोषित नाभि को। 
तुम इसी तरह से मेरे माथे को चूमना प्रिये 
इसी तरह से सोख लेना मेरे रक्त पुष्पों को। 
मुझ पर यक़ीन करो 
एक पाप क्षम्य होगा तुम्हारी 
बोधिसत्व पशुता को।

©Lalit Saxena
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