जंग खा रही ताले दरवाजें पे ऊंघती खिड़कियां यू लगा जैसे मेरी तरह वो भी किसी इंतज़ार में हैं मेने नजरो से खटखटाया मूकदर्शक अनुत्तरित सवालों से बोझिल बाट जोह रही मकान निस्तेज पड़ी थी नाउम्मीदी से बरसों बाद जो तिरी गली से गुजरा यू लगा जैसे किसी बियाबान से गुजरा -राकेश तिवारी- नमस्कार लेखकों🌺 Collab करें हमारे इस #RzPoWriMoH1 के साथ और "मकान" पर कविता लिखें। (मूल कविता कैफ़ी आज़मी द्वारा) • समय सीमा : 24 घंटे • कैपशन में संक्षिप्त विस्तारण करने की अनुमति है।