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सुकून परिंदा बैठा था, ख़ामोशी के घोंसले पे था दूर

सुकून परिंदा बैठा था, ख़ामोशी के घोंसले पे 
था दूर सारी व्यथाओं से, जहर समाज कथाओं से

फिर एक शाम तूफ़ां आया, कहर बनकर यूँ छाया
उलट पुलट हो गई दुनिया उसकी, 
बिखर गए तिनके-तिनके

पर रोते बिलखते, उसने खुद को समझाया
माथे से अपने सिकन हटाया

सुलझनों से हाथ मिलाके, उलझनों की पोटली बनाके
निकल पड़ा बदहवास सड़क में

गिरता पड़ता कोशिश करता
कभी इस डगर पे, कभी उस शहर पे 

🍁विकास कुमार🍁 सुकून परिंदा....
सुकून परिंदा बैठा था, ख़ामोशी के घोंसले पे 
था दूर सारी व्यथाओं से, जहर समाज कथाओं से

फिर एक शाम तूफ़ां आया, कहर बनकर यूँ छाया
उलट पुलट हो गई दुनिया उसकी, 
बिखर गए तिनके-तिनके

पर रोते बिलखते, उसने खुद को समझाया
माथे से अपने सिकन हटाया

सुलझनों से हाथ मिलाके, उलझनों की पोटली बनाके
निकल पड़ा बदहवास सड़क में

गिरता पड़ता कोशिश करता
कभी इस डगर पे, कभी उस शहर पे 

🍁विकास कुमार🍁 सुकून परिंदा....