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एकात्मवाद के संगम में बेजोड़ दौड़ना पड़ता ह

एकात्मवाद  के   संगम  में   बेजोड़  दौड़ना पड़ता है।
परिमण्डल के प्राणों का भी तो मोह छोड़ना पड़ता है।।
जय और पराजय की  बातों पर  कर्ण नहीं खोले जाते।
दो - चार अनर्गल   विश्लेषण पर मर्म नहीं तोले जाते।।

बहुसंख्य  समूहों  के पीछे  अधिभार  नहीं बनना होता।
नव भीड़तन्त्र के हिस्से का  व्यापार  नहीं बनना होता।।
निज भुजदण्डों के पौरुष पर ही द्वण्द यहाँ पर होता है।
बहुरक्त  दूर  सम्बन्धों  पर  आधार  नहीं  बनना होता।।

हम  मिथ्यावाद  भुजंगों  के  पायस  में साथ नहीं रहते।
हम वाद और प्रतिवादों में आँचल को ग्रास नहीं कहते।। 
लोचन का लोचन क्या लेना जब लोच यहीं संपीडित है। 
हम  व्यर्थ बानगी पर इनके  अपणक  पर्याय नहीं लेते।।

विद्रुपी अराजक  तत्वों के सुरकण्ठ  अगर अनुनादित हों।
अंतरपट  विटप वितानों पर उच्छृंखल इनकी साजिश हों।। 
कटुता  की  सारी  परतों  में  गहरे  प्रशान्त  सम  झाँईं हो।
और  हमारे  स्वत्त्वमानों  पर  भ्रामकता  की  आतिश हो।।

तो ऐसी  प्रस्थिति के भीतर हम  अंध-बधिर बन जाते हैं।
मानों तो मदकल ही बनकर हम पग प्रयाण कर जाते हैं।।
एकान्त  रमण  के  सन्नाटों  से  ही  अभिव्यक्ति  होती है। 
हम  कुशल-क्षेम के प्रश्नों तक ही  सीमांकित हो जाते हैं।। *******************************
एकात्मवाद  के   संगम  में   बेजोड़  दौड़ना पड़ता  है।
परिमण्डल के प्राणों का भी तो मोह छोड़ना पड़ता है।।
जय और पराजय की  बातों पर  कर्ण नहीं खोले जाते।
दो - चार अनर्गल   विश्लेषण पर मर्म नहीं तोले जाते।।

बहुसंख्य  समूहों  के पीछे  अधिभार  नहीं बनना होता।
नव भीड़तन्त्र के हिस्से का  व्यापार  नहीं बनना होता।।
एकात्मवाद  के   संगम  में   बेजोड़  दौड़ना पड़ता है।
परिमण्डल के प्राणों का भी तो मोह छोड़ना पड़ता है।।
जय और पराजय की  बातों पर  कर्ण नहीं खोले जाते।
दो - चार अनर्गल   विश्लेषण पर मर्म नहीं तोले जाते।।

बहुसंख्य  समूहों  के पीछे  अधिभार  नहीं बनना होता।
नव भीड़तन्त्र के हिस्से का  व्यापार  नहीं बनना होता।।
निज भुजदण्डों के पौरुष पर ही द्वण्द यहाँ पर होता है।
बहुरक्त  दूर  सम्बन्धों  पर  आधार  नहीं  बनना होता।।

हम  मिथ्यावाद  भुजंगों  के  पायस  में साथ नहीं रहते।
हम वाद और प्रतिवादों में आँचल को ग्रास नहीं कहते।। 
लोचन का लोचन क्या लेना जब लोच यहीं संपीडित है। 
हम  व्यर्थ बानगी पर इनके  अपणक  पर्याय नहीं लेते।।

विद्रुपी अराजक  तत्वों के सुरकण्ठ  अगर अनुनादित हों।
अंतरपट  विटप वितानों पर उच्छृंखल इनकी साजिश हों।। 
कटुता  की  सारी  परतों  में  गहरे  प्रशान्त  सम  झाँईं हो।
और  हमारे  स्वत्त्वमानों  पर  भ्रामकता  की  आतिश हो।।

तो ऐसी  प्रस्थिति के भीतर हम  अंध-बधिर बन जाते हैं।
मानों तो मदकल ही बनकर हम पग प्रयाण कर जाते हैं।।
एकान्त  रमण  के  सन्नाटों  से  ही  अभिव्यक्ति  होती है। 
हम  कुशल-क्षेम के प्रश्नों तक ही  सीमांकित हो जाते हैं।। *******************************
एकात्मवाद  के   संगम  में   बेजोड़  दौड़ना पड़ता  है।
परिमण्डल के प्राणों का भी तो मोह छोड़ना पड़ता है।।
जय और पराजय की  बातों पर  कर्ण नहीं खोले जाते।
दो - चार अनर्गल   विश्लेषण पर मर्म नहीं तोले जाते।।

बहुसंख्य  समूहों  के पीछे  अधिभार  नहीं बनना होता।
नव भीड़तन्त्र के हिस्से का  व्यापार  नहीं बनना होता।।

******************************* एकात्मवाद के संगम में बेजोड़ दौड़ना पड़ता है। परिमण्डल के प्राणों का भी तो मोह छोड़ना पड़ता है।। जय और पराजय की बातों पर कर्ण नहीं खोले जाते। दो - चार अनर्गल विश्लेषण पर मर्म नहीं तोले जाते।। बहुसंख्य समूहों के पीछे अधिभार नहीं बनना होता। नव भीड़तन्त्र के हिस्से का व्यापार नहीं बनना होता।। #Struggle #Loneliness #yqdidi #yqhindi #yqlife #हरिगोविन्दविचारश्रृंखला