बिन बोले समझ लेते हो हर बात,बोलना भी तो आपने सिखाया है, जब-जब गिरा ज़मीन पे तब तब हाथ दे कर आपने ही तो उठाया है। बोलने से पहले ही सब चीज़ें होती है मौजूद, बिन कुछ कहें अपनी मोहब्बत को हर बार आपने ही तो जताया है।। पर क्यों हर बार आपने अपने आँशुओं को छुपाया है? क्यों नहीं पापा कभी आपने अपना दर्द हमें बताया है?? क्यों मुस्कुरा कर छुपा लेते हो सब,क्यों अपने गम को कभी बाहिर नहीं कर पाते? क्यों होती है बाप-बेटे मे दूरियाँ इतनी,कि अपनी मोहब्बत ज़ाहिर नहीं कर पाते?? बचपन भला था,गोद मे रहता दिन भर,आपके सीने से लग कर था सोया करता, अब बड़ा हुआ तो कभी गले भी न लग पाया,अक्सर तकिये तले सिर रख कर हूँ रोया करता।। सोचता हूँ जाने कितनी ही ज़िद आपने मेरी की हैं पूरी ,ज़िन्दगी ये मेरी आपके बिन है अधूरी, दे देते हो मुझे सब कुछ,अपने लिए लेते कुछ भी नहीं,पापा ये कैसी आपकी है मज़बूरी ?? मैं खुश हूँ पर क्यों मुझे खुश रखने को आपने अपनी ही खुशियों से बना ली है दूरी?? मन है कि लग के गले आपसे पूछ लूँ ये सब सवाल,और कर दूँ सब ज़ाहिर, डर है या इज़्ज़त पता नहीं पर क्यों मेरे भी जज़्बात नहीं आ पाते बाहिर... शायद जुबाँ से कह ना पाऊं कभी,इसलिए कलम से बयान कर रहा हूँ, बोल के ना सहीं पर शायद दूरियों को कुछ कम अपने दरमियान कर रहा हूँ। दूर हूँ पर आऊँगा घर वापस जल्द ही,और आपके कदम चुम लूँगा, मेरे भगवान तो आप ही हो,कदमों मैं आपके चारों धाम घूम लूँगा। रख लूँगा सिर एक बार फिर सीने मे,और कर दूंगा बयां जज़्बात सब, सुन लूँगा तकलीफ़ें आपकी,और रहूंगा मैं हरपल साथ अब। कर दूँगा आपको हर एक बात,जज़्बात अबकी बार मैं ज़ाहिर, आप भी मत रखना सीने मे कुछ,कर देना सब जज़्बात बाहिर।। कर देना सब ज़ज़्बात बाहिर।। a letter to dad