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कितना सताते हो बड़ा तरसाते हो प्रेम की ज्योत जगा क

कितना सताते हो बड़ा तरसाते हो
प्रेम की ज्योत जगा के क्यूँ नही आते हो
                                        रुलाते हो
ओ....कान्हा...आ..ओ कान्हा

हम चाकर हैं श्याम दरस दीवाने हैं
कैसे तुझको पाएँ भगत अनजाने हैं
तुम समझ लो ना, जैसा भी नाता है
तुम जो रूठे तो कुछ भी ना भाता है
तुम ही जिलाते हो, तुम ही मिटाते हो 
प्रेम की ज्योत जगा के क्यूँ नही आते हो...!
                                           रुलाते हो..! 
ओ....कान्हा...आ..ओ कान्हा

भवसागर में छोड़ अगर तुम जाओगे
भक्तों का उपहास अगर उड़वाओगे
तो समझ लेना ना जीत तुम्हारी है
हाँ मगर सच्ची ये प्रीत हमारी है
अपना बनाते हो दिल में बसाते हो
प्रेम की ज्योत जगा के क्यूँ नही आते हो..!
                                            रुलाते हो..!
ओ....कान्हा...आ.. ओ कान्हा   
   
क्षीर सिन्धु से बाहर भी तो आओ तुम
दीवानों पर थोड़ा रहम दिखाओ तुम
तुम कहाँ बैठे हम ढूँढ़ ना पायें
कौन जतन कर लें कैसे तुम्हें पायें 
तुम ही बुलाते हो भूल भी जाते हो 
भक्त बुलाते फिर तुम क्यूँ नहीं आते हो.. 
                                            आते हो.. 
ओ....कान्हा...आ.. ओ कान्हा

©अज्ञात
  #कान्हा