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शीर्षक - अफसोस कि अब मुझको भी बदलना पड़ा जमाने के स

शीर्षक - अफसोस कि अब मुझको भी बदलना पड़ा जमाने के साथ
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मैं अपने विचार, तरीकें और रास्तें, 
नहीं चाहता था बदलना,
रहना चाहता था उसी अवस्था में,
जिसमें इंसान को नहीं होती है,
अंतर की समझ और चालाकी,
एक बच्चे की तरह दुनिया की,

मैं बाँटना चाहता था सबको,
अपनी खुशी और सुख निःस्वार्थ,
और हरना चाहता था मैं,
सभी की तकलीफें और दर्द को,
इसीलिए लिखता था खतो- कविता,
सबकी खुशहाली के लिए ईश्वर को।

देखता था मैं ख्वाब सभी के लिए,
उनके आबाद और सुखी होने के,
मैं याद करता था  हररोज उनको,
जिनसे मेरी मुलाकात हुई थी,
जो बनते थे सहारा मेरी तकलीफ़ में,
छटपटाता था मैं उनसे मिलने के लिए।

ऐसे में कर लिया था निश्चय मैंने,
उनको अपना सब कुछ अर्पण करने का,
लेकिन किसी ने नहीं ली मेरी खैरो- खबर,
परदेश में इतने वर्ष बीतने के बाद भी,
अफसोस कि मुझको बदलना पड़ा,
 जमाने के साथ जमाने की तरह।




शिक्षक एवं साहित्यकार
गुरुदीन वर्मा उर्फ़ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)

©Gurudeen Verma #कविता
शीर्षक - अफसोस कि अब मुझको भी बदलना पड़ा जमाने के साथ
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मैं अपने विचार, तरीकें और रास्तें, 
नहीं चाहता था बदलना,
रहना चाहता था उसी अवस्था में,
जिसमें इंसान को नहीं होती है,
अंतर की समझ और चालाकी,
एक बच्चे की तरह दुनिया की,

मैं बाँटना चाहता था सबको,
अपनी खुशी और सुख निःस्वार्थ,
और हरना चाहता था मैं,
सभी की तकलीफें और दर्द को,
इसीलिए लिखता था खतो- कविता,
सबकी खुशहाली के लिए ईश्वर को।

देखता था मैं ख्वाब सभी के लिए,
उनके आबाद और सुखी होने के,
मैं याद करता था  हररोज उनको,
जिनसे मेरी मुलाकात हुई थी,
जो बनते थे सहारा मेरी तकलीफ़ में,
छटपटाता था मैं उनसे मिलने के लिए।

ऐसे में कर लिया था निश्चय मैंने,
उनको अपना सब कुछ अर्पण करने का,
लेकिन किसी ने नहीं ली मेरी खैरो- खबर,
परदेश में इतने वर्ष बीतने के बाद भी,
अफसोस कि मुझको बदलना पड़ा,
 जमाने के साथ जमाने की तरह।




शिक्षक एवं साहित्यकार
गुरुदीन वर्मा उर्फ़ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)

©Gurudeen Verma #कविता
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Gurudeen Verma

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