दोपहिए पर अपने से तिगुणी भार को बिठाए...ढोए जा रहा था...जाने मां थी..भार्या या भगिनी...पिछली सीट जो महिलाओं के लिए लगभग संरक्षित....सुरक्षित या...आरक्षित मानी गई है,गजनुमा शिष्टाचार में बैठी थी.....और वह सभी ट्रैफिक नियमानुसार...भीड़ के हुजूम में...कभी आहिस्ते..कभी तेज़ कभी पग थामे थामे.......
Feminism का भार इस भार से ज़्यादा भारी जान पड़ा...बड़ा हल्का कर दिया पुरूषों के अस्तित्व को...जो अस्तु में तो है पर धिक्कारित्.......
वह ढोएगा....जताएगा...पर कभी उतारेगा नही....अस्वीकारेगा नही....
शायद यही पुरूष की प्रकृति है...
और यही प्रकृति का विधान भी....
@पुष्पवृतियां