स्वलीनता, व्यर्थ की चिंता उपहास स्वयं का करता हु सजग रहा करता था मैं पर अब मानस मंथन करता हूं । चंचल मन जो अभिलाषी था संप्रेषित था खुद से वाकिफ था अहंगकेन्द्रित होकर भी खुद के भय से ये डरता है शर्मिंदा हूं , इसके सम्मुख मैं कई सवाल ये करता है... हास्य व्यंग का पात्र बना मैं व्यर्थ से शब्द का वाक्य बना मैं ये मार्ग त्रस्त हो सकता है ये भी समय, व्यर्थ हो सकता है लक्ष्य निर्देशित नहीं तुम्हारा अपनी कमियां ना झुटलाओ खड़े ना उतरे , ' तुम ' हर अवसर पर । चंचल मुझे ना बतलाओ । ©Akash Vats Mera mn ! #Poetry . . .