कैसे कहूँ सखी... मन मीरा होता तो,श्याम को रिझा लेता उन्हे नयनो में समा लेता... ह्रदयराग सुना देता पर ये तो,निर्द्वन्द भटकता है... ना कोई अंकुश समझता है। या तो दे दो दीदार सांवरे....,नहीं तो दर बदर भटकता है पर मीरा भाव ना समझता है... ना मीरा सा बनता,है फिर कैसे कहूं सखी न आता है अब तो एक ही रटना लगाता है.. किसी,और भुलावे में ना अपने कर्मों की पत्री ना बांचता है.. अपने कर्मों का ना हिसाब,लगाता है मन मीरा होता तो..... श्याम को रिझा,लेता जन्म जन्म की भरी है गागर.... पापों का बनी है सागर उस पर ना ध्यान,देता है फिर कैसे कहूं सखी मन मीरा होता तो... श्याम को रिझा लेता,बस श्याम मिलन को तरसता है.... दीदार की हसरत रखता है। ये कैसे भरम में जी,रहा है जाने कहाँ से सुन लिया है... अवगुणी को,भी वो तार देते हैं पापी के पाप भी हर लेते हैं.... और अपने समान कर लेते हैं।,वहाँ ना कोई भेदभाव होता है... बस जिसने सर्वस्व समर्पण किया होता है,वो ही दीदार का हकदार होता है बता तो सखी,,अब कैसे ना कहूं...मन मीरा होता तो.... श्याम को रिझा लेत ©पूर्वार्थ #मीरा_सा_इश्क़