निग़ाहों से लहू टपका रहा हूँ और ये क़िस्मत। मुझे हर बार नाहक़ में सताकर तंग करती है।। मैं अपनी बेबसी पर रो रहा हूँ और ये दुनियां। मेरी इस बेबसी पर हर तरह के तंज करती है।। परिंदों की तरह घर से निकलता हूँ फ़ज़ाओं में। तो मुझको तीर आ कर के किसी तरकश का लगता है।। मैं अपने आप को जब देखता हूँ तो क्या पाता हूँ। कोई इंसान जैसे टूटकर बेबस सा लगता है।। , पुरानी दास्तानों का हवाला दे रहा हूँ पर। मेरे जख्मों को कोई अब कहाँ शादाब करता है।। शब-ए-हिज्रां के नग्मों का असर दिखने लगा है अब। कोई लहज़ा यूँ ही अपना नहीं तेज़ाब करता है।। , मुनासिब है कि मेरे बाद का मंज़र सुहाना हो। मगर मैं इस तरह के कोई वादे कर नहीं सकता।। मुझे मालूम है हर रास्ता लेकिन मैं क़ैदी हूँ। रिहा होकर मैं दुनियां से यक़ीनन लड़ नहीं सकता।। #रमेश ©Ramesh Singh