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मेरे खेतों की क्यारियां।। मेरे गांव का अहरा, घर क

मेरे खेतों की क्यारियां।।

मेरे गांव का अहरा, घर का ठिकाना बतातीं आलियाँ।
क्यारियों में बहता कलकल पानी, लहलहाती गेंहूँ की बालियां।

अपनेपन का संचार लहू में,हर चेहरा सबको पहचानता।
कोई कहाँ क्या करता है,हर की व्यथा हर कोई जानता।
रब्बी की फसल का मौसम,खेतों में लगता अलाव होरहा।
एक मंडली, मुस्काते चेहरों की,बच्चा भी बैठ बाट है जोह रहा।
रमुआ अपने गमछे में नमक बांधे आया,संजइया भुनी मिर्ची संग ले आया है।
क्या इटालियन, मेक्सिकन क्या,सबके स्वादों का रंग ले आया है।
हर मुख, आग की गर्मी में,सूरज की लाली को समेटे बैठा।
बातें घर की, सारे संसार की,कोई पैर पसारे तो कोई लेटे बैठा।

कुछ समय पहले ही,कटी थी फसल धान की।
खरीफ ने कहा था अलविदा,शुरू कथा रबी के बिहान की।
हर खलिहान फसलों का ढेर,पिंजों की भरमार लगी।
चूडों के मिल भी लगे थे,बोरियों की लंबी कतार लगी।

शहर से संवाद है आया,संक्रांति के चूड़े भिजवा दो।
घर बैठी दादी भी बोली,काली वाली जुड़े भिजवा दो।
बूढ़ा बाप कभी ना नही कहता,ले सर बोरी स्टेशन को चला है।
कितना अंतर है गांव शहर में,कहाँ बेटे से बाप पला है।
हर दर्द समेटे गमछे में,देखो वहां किसान खड़ा है।
हम रिस्क की बातें करते है,वो सर्दी गर्मी से कहाँ डरा है।
हर पहर आसमा ओढ़े चलता वो,धरती से सोना उपजाता है।
फिर गांव शहर की धुंध में आ,उसका अस्तित्व कहाँ खो जाता है।

झंडा लिए वो दूर खड़ा है,नेता बटोरते तालियां।
फिर, क्यारियों में बहता कलकल पानी, लहलहाती गेंहूँ की बालियां।

©रजनीश "स्वछंद" #NojotoQuote मेरे खेतों की क्यारियां।।।
मेरे खेतों की क्यारियां।।

मेरे गांव का अहरा, घर का ठिकाना बतातीं आलियाँ।
क्यारियों में बहता कलकल पानी, लहलहाती गेंहूँ की बालियां।

अपनेपन का संचार लहू में,हर चेहरा सबको पहचानता।
कोई कहाँ क्या करता है,हर की व्यथा हर कोई जानता।
रब्बी की फसल का मौसम,खेतों में लगता अलाव होरहा।
एक मंडली, मुस्काते चेहरों की,बच्चा भी बैठ बाट है जोह रहा।
रमुआ अपने गमछे में नमक बांधे आया,संजइया भुनी मिर्ची संग ले आया है।
क्या इटालियन, मेक्सिकन क्या,सबके स्वादों का रंग ले आया है।
हर मुख, आग की गर्मी में,सूरज की लाली को समेटे बैठा।
बातें घर की, सारे संसार की,कोई पैर पसारे तो कोई लेटे बैठा।

कुछ समय पहले ही,कटी थी फसल धान की।
खरीफ ने कहा था अलविदा,शुरू कथा रबी के बिहान की।
हर खलिहान फसलों का ढेर,पिंजों की भरमार लगी।
चूडों के मिल भी लगे थे,बोरियों की लंबी कतार लगी।

शहर से संवाद है आया,संक्रांति के चूड़े भिजवा दो।
घर बैठी दादी भी बोली,काली वाली जुड़े भिजवा दो।
बूढ़ा बाप कभी ना नही कहता,ले सर बोरी स्टेशन को चला है।
कितना अंतर है गांव शहर में,कहाँ बेटे से बाप पला है।
हर दर्द समेटे गमछे में,देखो वहां किसान खड़ा है।
हम रिस्क की बातें करते है,वो सर्दी गर्मी से कहाँ डरा है।
हर पहर आसमा ओढ़े चलता वो,धरती से सोना उपजाता है।
फिर गांव शहर की धुंध में आ,उसका अस्तित्व कहाँ खो जाता है।

झंडा लिए वो दूर खड़ा है,नेता बटोरते तालियां।
फिर, क्यारियों में बहता कलकल पानी, लहलहाती गेंहूँ की बालियां।

©रजनीश "स्वछंद" #NojotoQuote मेरे खेतों की क्यारियां।।।

मेरे खेतों की क्यारियां।।।