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शबे-हिज़्र में रतजगा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं, ग़में

शबे-हिज़्र में रतजगा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं,
ग़में-उल्फ़त में मुब्तिला, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

बेशक़ चलाएंगे बस हम तलवार एक दूसरे पर,
हुक़ूमत से यां आशना, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

हम दोनों एक दूसरे की ज़िद पर मरे रहेंगे,
मगर न लाएंगे तीसरा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

एक दूसरे की हम दोनों को ज़रूरत यूँ है के,
बग़ैर एक दूसरे के आईना, तू भी नहीं मैं भी नहीं। 

चाहते दोनों है मगर एक गुफ़्तुगू तवील भी,
बज़्म में मगर बोलता, तू भी नहीं, मैं भी नहीं।

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

©Tariq Azeem 'Tanha' #rekhta  #urdupoetry #urdusadpoetry #urdupoetryworld   #poetrylovers #poetry #Shayari #aliaranveerwedding #tariqazeemtanha
#Wedding
शबे-हिज़्र में रतजगा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं,
ग़में-उल्फ़त में मुब्तिला, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

बेशक़ चलाएंगे बस हम तलवार एक दूसरे पर,
हुक़ूमत से यां आशना, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

हम दोनों एक दूसरे की ज़िद पर मरे रहेंगे,
मगर न लाएंगे तीसरा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं। 

एक दूसरे की हम दोनों को ज़रूरत यूँ है के,
बग़ैर एक दूसरे के आईना, तू भी नहीं मैं भी नहीं। 

चाहते दोनों है मगर एक गुफ़्तुगू तवील भी,
बज़्म में मगर बोलता, तू भी नहीं, मैं भी नहीं।

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

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