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महज़ दीवारों को पता है ख़ाली कमरों का दुख यहाँ सबन

महज़ दीवारों को पता है ख़ाली कमरों का दुख यहाँ सबने कहाँ समझा है झगड़ों का दुख

इज़हार-ए-मोहब्बत मे ये काम आता है मग़र मंडराते भवों को पता है टूटे फूलों का दुख

कुछ दर्द दिल के बयां कभी हो पाते नहीं डायरी के पन्नों को ही पता है शायरों का दुख

पास डिग्रियाँ है पर करने को कोई काम नहीं

सरकारें समझती नहीं पढ़े-लिखों का दुख

जिसके नसीब में माँ-बाप का साया नहीं होता बचपन ने भी समझा ना उन बच्चों का दुख

यहाँ नियत तो ज़माने की ख़राब थी मराट

घरवालों ने समझा ना लड़की के सपनों का दुख

©Deva Kumar
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