हम आदतें कभी बदल के देखें अँधेरा हो घना तो जल के देखें घपोचन जी कहिन- ५ """""""""""'" दूध लेकर आ रहा था कि घपोचन जी दीख गए।आमतौर पर इनर्जीआए (फुल ऑफ इनर्जी) रहने वाले घपोचन जी अपेक्षाकृत कुछ सुस्त-से लगे।सो पूछ बैठा― 'क्या हाल है घप्पू भाई! आज दीपावली के दिन भी बुझे-बुझे-से लग रहे हैं,सब ठीक तो है न!' 'मर्दे! हम आपको बूझल (बुझा हुआ) लग रहे हैं!हम तो भीतरे-भीतर (अंदर-ही-अंदर) जल रहे हैं,या यूँ कहिए कि जल चुके हैं बस राख होना बाक़ी है।' कहते-कहते घपोचन जी फफक पड़े।आँसुओं की अविरल धारा उनके आँखों से निकलकर कपोल-प्रदेश (गाल) को भिगोने लगी। वे हिचकियाँ लेते हुए बोले― 'अक्ल पे उनकी आता है मुझको तरस चलती साँसों को जो ज़िंदगी कहते हैं....