ऊहापोह बेचैन होकर, चैन खोजते लोग, लगा लोगों को, गजब बेनाम रोग, लगी है दौड़ बिन छाँव और छोर, कैसा जगत है, कैसे कैसे लोग। बेकल होकर, वो कल सोचते लोग, माने ना किस्मत के, गुमनाम जोग, उलझी सारी साँझ ओ सारी भोर, कैसी ऊहापोह है, कैसे संजोग। रिश्तों में घटते और कटते लोग, हल्के कुल हुए, हल्के हुए उपभोग, आडंबर की पसरी चहुँ ओर डोर, कैसी फ़िक्र है, कैसे कैसे वियोग। रसायनों से सन्ने सब सजते भोग, महीन मायने हुए, न्यून उपयोग, देखा देखी में अब लगा है जोर, कैसी ऊहापोह है, कैसे लोग। डॉ आनंद दाधीच 'दधीचि' ©Anand Dadhich #ऊहापोह #kaviananddadhich #poetananddadhich #poetsofindia #log #sadak