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काश मैं एक परिंदा होता उड़ता स्वछंद गगन मे गाता प्र

 काश मैं एक परिंदा होता
उड़ता स्वछंद गगन मे
गाता प्रकृति के स्वर में
नापता ऊचाईयां नभ की
नही करता उस छुद्र मानव की तरह
जो बो रहा बीज विष वृक्ष के
खोद रहा जड़े निज वतन की 
मैं नीरा परिंदा क्या जानू किन्तु परन्तु
 काश मैं एक परिंदा होता
उड़ता स्वछंद गगन मे
गाता प्रकृति के स्वर में
नापता ऊचाईयां नभ की
नही करता उस छुद्र मानव की तरह
जो बो रहा बीज विष वृक्ष के
खोद रहा जड़े निज वतन की 
मैं नीरा परिंदा क्या जानू किन्तु परन्तु