जब से आशिक़ी छोड़ मयकशी की है दोस्तों की फ़ेहरिस्त मेरी और बड़ी है कब शाम ढली....और कब हुई सहर मैख़ाने में इस बात की किसको पड़ी है एक मुद्दत से तन्हाई मिली नहीं मुझको वो भी लगता है किसी मैख़ाने में पड़ी है अजीब सा सरूर... अजीब सा है नशा अब फिक्र धुआँ हो कर हवा हो चली है अब न तुम हो न तुम्हारा कोई ग़म है जाम दर जाम आरज़ू जल रही है अब यही है काबा...यही है बुतखाना मेरा पता नया अब मैख़ाने की गली है ©pushpinder_1 मयकशी