आज की ज़िन्दगी खरचता नहीं किसी दिन फुर्सत में खरचुगा , बड़े बेबाकी से बाते करूँगा अपनी हर हसरत पूरी करूँगा , अपने से ,परिवार से , हमसफ़र से रोज़ कुछ न कुछ लम्हें चुराता हूँ , उन्हें फिर और कभी खरचने का एक सुन्दर सा ख्वाब बनाता हूँ , रोज़ कुछ चिल्लर बटोरता हूँ उन लम्हों को हसीं गुजारने को , रखता हूँ सहेज कर फिर उन्हें अपनी खुशियों पर वारने को , एक दिन अचानक मिला फुर्सत तो चुराए लम्हें खरचने को दिल किया , हमने चिल्लरों को देखा वो भी थे पर लम्हें कब के गायब हो गए थे बहुत ढूंढा पर उन्हें ढूंढ नहीं पाया बेबसों की तरह हर तरफ देखा और हर शक्श को अपना दुखड़ा सुनाया , बहुत सहेज कर रखा था अरमानों से अब खो सा गया है कही न जाने , साकी, मधुशाला और मयकश भी है पर अधूरे और खाली से है पैमानें, पल चुराया था अपनों से, सपनों से न जाने कितनों के अधूरे अरमानों से , इन लम्हों को बचाया था मैंने कभी दबकर दूसरों के भोंडे अहसानों से -किसलय कृष्ण वंशी "निश्छल"