मैं स्वपनों का व्यापारी स्वपनों में ही जी रहा हूँ बिना विषधर के ही कालकूट विष को पी रहा हूँ।। अभिभूत हूँ भावो से विरह के अगणित घावों से अब प्रेम ना बाकी है मुझमे,ना मैं खुद में बाकी रहा हूँ। बिना विषधर के ही कालकूट विष को पी रहा हूँ।। प्रतिकूल समय की धारा है जिसमे प्रतिपल मैंने तुम्हे पुकारा है अब वाक्य का अकेला छन्द हूँ मैं अम्बर में विहग स्वछन्द हूँ मैं नित नये पुराने किस्सो की फटी चादरें सी रहा हूँ। मैं स्वपनो का व्यापारी स्वपनों में ही जी रहा हूँ। बिना विषधर के ही कालकूट विष को पी रहा हूँ।। ©कपिल मेरी कलम से।।।।।।