#ग़ज़ल_غزل: २५१ --------------------------- 2122-2122-2122-212 मुँह बनाया सुब्ह को, पर रात भर अच्छा लगा प्यार करने का तुम्हारा ये हुनर अच्छा लगा //१ डर रहे थे कल बहुत वो वस्ल के गिरदाब में आज शरमा के मगर कहते हैं डर अच्छा लगा //२ मंदिरों की घंटियाँ हों या हो मस्जिद की अज़ाँ चल दिये उठ कर मियाँ हमको जिधर अच्छा लगा //३ था गिला क्या क्या नहीं वस्ते सफ़र हमसे उन्हें अब हज़र में हैं तो कहते हैं सफ़र अच्छा लगा //४ जब कभी परदेस से लौटा हूँ अपने गाँव मैं शह्र के महलों से अपना मुस्तक़र अच्छा लगा //५ थी उन्हें तशवीश आँखों से न उनको चूम लूँ राहज़न की आँख में लुटने का डर अच्छा लगा //६ 'राज़' दिल को खींचती हैं क्यों पराई औरतें कम ही हैं जिनको कि अपना हमसफ़र अच्छा लगा //७ #राज़_नवादवी