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जिनको समझ रखा था अपना वो अपने नहीं थे। मै अपनों को

जिनको समझ रखा था अपना
वो अपने नहीं थे।
मै अपनों को शायद
कब का खो चुकी हूं।

क्या गम के और या खुशी के
आंसू तो अब मुझको आते नहीं हैं
हासिल सारे आंसू शायद
कब का रो चुकी हूं।

वो कहते हैं ,
अपना समझती नहीं हो
तुम उलझी हुई हो,
सुलझती नहीं हो।
उन्हें क्या पता,,,,,

मैं बस खुद की नहीं बाकि
सबकी हो चुकी हूं।

लगाते हैं मुझ पर ,
इल्ज़ाम सारे मिलकर
ये दाग़ सारे मेरे,
 बिल्कुल नए नए हैं।
पुराने तो सारे मैं
बमुश्किल धो चुकी हूं।

अच्छाइयों का क्या है
फटकार है कमानी।
तुम लिख लो सारी बातें
जो हैं मेरी जुबानी।
फिलहाल सारी नेकियों का
मैं धनिया बो चुकी हूं।

हर्षा
😃😃

©harsha mishra
  #कड़वा सच प्रशांत की डायरी विवेक ठाकुर "शाद" Prof. RUPENDRA SAHU "रूप" Anshu writer कर्म गोरखपुरिया