यह शोर शराबा तुम ही रखो, मैं खामोशी का उपवासी हूँ, रखो अपनी दुनियादारी, मैं एकांत स्थान का वासी हूँ। तुम प्रेमी इस नवयुग के, मैं कलम-नशा का प्रेरक हूँ, तुम धरा पर शासक जैसे मैं सकल भूमि का सेवक हूँ। कभी प्रसन्न हूँ, कभी उत्साहित, सरलता से कभी आँसू बहाता हूँ, कभी छात्र, कभी प्रतियोगी, लेखक बन भावों मे नहाता हूँ। मन मतंग के आवेशों के आगे, सप्रेम स्वतः झुक जाता हूँ फिर भी समस्त ऊँच नीच सहित, खामोशी को अपनाता हूँ। हिम्मत हिमालय, तन से कलयुग मन से पूरा काशी हूँ, अखंड धरा पर एकमात्र मैं, शांति का उपवासी हूँ। हृदय में सूर्य की गर्मी, मुख पर चंद्र की शीतलता, शब्दों में पुष्प की कोमलता अपार चाहिए, एकांत, खामोशी, शांतिप्रियता के साथ ही, एक सौम्य उचित व्यवहार चाहिए। वाणी में ताक़त, ललाट पर तेज़, धमनियों में ऊर्जा का संचार चाहिए, मर्यादित, समाज के अनुकूल, हर वर्ग का आचार चाहिए। इसीलिए ऊर्जा समेटने खामोशी को अपनाता हूँ, चमक धमक सी मृगतृष्णा से, स्वयं को दूर हटाता हूँ। #poetry#hindi#alone#true