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मैं गया तो तेरे अंदर क्या बचेगा कह

 मैं  गया    तो   तेरे   अंदर   क्या   बचेगा   कह   ज़रा,
खोखला सा जिस्म क्या कुछ कह सकेगा कह ज़रा।

देखना आएँगे  आशिक़  ज़िक्र  इस  लब  का  लिए,
क्या  मगर   मुझसा  इसे  कोई  छुएगा   कह  ज़रा।

हिज्र की  शब  को मैं  अपने अश्क हर  पल  दे रहा,
क्या भला  इस  रात को  तुझसे  मिलेगा  कह ज़रा।

जिस  तरह  महताब  में  भी  क़ल्ब  मेरा  जल  रहा,
चाँदनी  में   उस  तरह   तू  भी  जलेगा   कह  ज़रा।

ख़्वाब  की   किरची  समेटे  फिर  रहा  हूँ   मैं  मगर,
कैसे  नींदों   में   फ़क़त   रस्ता   कटेगा   कह  ज़रा।

कह ज़रा  एक  वस्ल अपना फिर  कहीं  होगा कभी,
कहकशाँ  में   आशियाँ   अपना  बनेगा   कह  ज़रा।

©Rishabh 
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