मुकद्दर में मेरे कोई हमसफ़र नहीं है। मिले बहुत हैं मगर कोई रहबर नहीं है।। जिंदा लाश बन गया हूं मैं आजकल। आंखे मूंद लूं कैसे यहां मुर्दाघर नहीं है।। मैं हर किसी की गिनती में हूं शामिल। मगर प्यार किसी का मयस्सर नहीं है।। आलीशान बंगले नसीबा ने दिए मुझे। सुकूं जो दे नजर आता वो घर नहीं है।। दिल में धधक रही आग कई मुद्दतों से। बुझा सके इसे जो कोई समन्दर नहीं है।। जिंदगी के अंधेरों से डर भी है मुझे। मगर आसानी से मिले मुनव्वर नहीं है।। कई हसरतें दफन सीने में मेरे मगर। "अमित" के लिए कोई स्वयंवर नहीं है।। पूर्णतः अप्रकाशित और मौलिक। अमित "अनुपम" गजल। कोई रहबर नहीं है।