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ऐसी उलझन है जीवन ये, अब इसको सुलझाए कौन| अपनी वयथा

ऐसी उलझन है जीवन ये, अब इसको सुलझाए कौन|
अपनी वयथा किसे बताऊँ, देख रहे सब बैठे मौन ||
बाँझ
उम्मीद की कोई सुबह नही, बस ढलती हुई एक सांझ हूँ मैं |
है ममता दिल में भरी हुई , पर सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
हूँ बहिस्कृत हर मंगल अवसर में, है नजर चुराते आज सभी |
हूँ तृस्कृत मैं इस समाज में, थी लक्ष्मी रूपी नाज कभी |
सौभाग्य कभी मैं उनके घर की, अब बनी क्यों दाग हूँ मैं |
कई अरमानो की बोझ उठाये,  हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
नहीं कंही झूला है कोई , नहीं कोई किलकारी है | 
क्या जिस पौधे में फूल नहीं, वो बस कंटीली झारी है |
है ईश्वर का निर्माण ही ऐसा , मैं नहीं कोई अपराधी हूँ |
है प्रेम भरा इस हिर्दय में मेरे , फिर भी मैं क्यों आधी हूँ |
कई सपनो की चिता जलाती, धदक्ति हुई एक आग हूँ मैं |
अन्धकार को गले लगाए, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
जननी का तूने रूप दिया, क्यों सिर्जन का अधिकार नहीं | 
भाग्य ने है मजबूर किया , पर ये मेरा अपराध नही  | 
जीना बहुत कठिन सा लगता , मिर्तुय भी देती साथ नहीं |
मैं जीवित रहूँ अब बोलो कैसे, जब अपने ही मेरे साथ नहीं | 
दुनिया के इस शोरगुल में , कही सिसकती सी आवाज़ हूँ मैं |
तुम सुन ना सको वो साज हूँ मैं, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं || 



                रचना : गिरीश "स्याही" Baanjh.. A Dark Side of Indian Culture
ऐसी उलझन है जीवन ये, अब इसको सुलझाए कौन|
अपनी वयथा किसे बताऊँ, देख रहे सब बैठे मौन ||
बाँझ
उम्मीद की कोई सुबह नही, बस ढलती हुई एक सांझ हूँ मैं |
है ममता दिल में भरी हुई , पर सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
हूँ बहिस्कृत हर मंगल अवसर में, है नजर चुराते आज सभी |
हूँ तृस्कृत मैं इस समाज में, थी लक्ष्मी रूपी नाज कभी |
सौभाग्य कभी मैं उनके घर की, अब बनी क्यों दाग हूँ मैं |
कई अरमानो की बोझ उठाये,  हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
नहीं कंही झूला है कोई , नहीं कोई किलकारी है | 
क्या जिस पौधे में फूल नहीं, वो बस कंटीली झारी है |
है ईश्वर का निर्माण ही ऐसा , मैं नहीं कोई अपराधी हूँ |
है प्रेम भरा इस हिर्दय में मेरे , फिर भी मैं क्यों आधी हूँ |
कई सपनो की चिता जलाती, धदक्ति हुई एक आग हूँ मैं |
अन्धकार को गले लगाए, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं |
जननी का तूने रूप दिया, क्यों सिर्जन का अधिकार नहीं | 
भाग्य ने है मजबूर किया , पर ये मेरा अपराध नही  | 
जीना बहुत कठिन सा लगता , मिर्तुय भी देती साथ नहीं |
मैं जीवित रहूँ अब बोलो कैसे, जब अपने ही मेरे साथ नहीं | 
दुनिया के इस शोरगुल में , कही सिसकती सी आवाज़ हूँ मैं |
तुम सुन ना सको वो साज हूँ मैं, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं || 



                रचना : गिरीश "स्याही" Baanjh.. A Dark Side of Indian Culture