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उसके गुस्से में निरीह सिर झुकाए हम कितने अच्छे लगत

उसके गुस्से में निरीह सिर झुकाए हम कितने अच्छे लगते थे
उसकी हथेलियों पे गिरते हुए नम आंसू कितने अच्छे लगते थे

उसकी उंगलियों के पोर पर रुखड़े तरकारी काटने के निशान
और हाथो में झाड़ू लिए वो हाथ सच में कितने अच्छे लगते थे

मेले की उमंग ,सुत्ती सारी के पल्लू में बंधे सिक्को कि जिद्द 
उसके हाथ से निकले वो सिक्के कितने अच्छे लगते थे

वो सिक्के ले यारो संग दुनिया खरीदना फिर उससे पिटना
वो दर्द भी अच्छा,उसकी मार से छिपते हुए कितने अच्छे लगते थे

: उसकी मुस्कान की दमक से मेरे हाथ खुलते थे
उसकी आंखो कि साए में गुजरते पल कितने अच्छे लगते थे
राजीव

©samandar Speaks
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