किसे पता कहां हूं मैं खुल कर भी अनकहा हूं मैं क्या जानूं मैं कसमें-वादे, हां थोड़ा सा बेहया हूं मैं ।। तोड़ कर जंजीर सारी पंछी सा उड़ चला था मैं मिलने को आज़ाद आसमां पर धरती से कब जुदा था मैं ।। ढूंढता मंजिल की राहें कर्म पर बढ़ चला था मैं मिल सके मंजिल को राही हां थोड़ा सा मनचला था मैं ।। चलते-चलते थोड़ा सा, हां कदम डगमगा गए मिलते-मिलते मंजिल से, हम मुकर के आ गए ।। हो गया एहसास अब ये, हां हो गया गुमराह मैं है उम्मीद खुद से अब, सुकून मिले मिराज़ में ।। चल दिया है फिर से राही, एक नई तलाश में ।। मिलेगी मुझको जिंदगी फिर नए लिबास में ।। -©अभिषेक अस्थाना(स्वास्तिक) किसे पता कहां हूं मैं खुल कर भी अनकहा हूं मैं क्या जानूं मैं कसमें-वादे, हां थोड़ा सा बेहया हूं मैं ।। तोड़ कर जंजीर सारी पंछी सा उड़ चला था मैं मिलने को आज़ाद आसमां