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ज़िंदगी, कोई-मुझे-समझता-ही-नहीं से शुरू होकर क


ज़िंदगी,
कोई-मुझे-समझता-ही-नहीं 
से शुरू होकर  
क्या-कोई-मुझे-समझ-पाएगा-कभी 
से होती हुई, 
कोई-नहीं-समझता-मुझे-पर-फ़र्क़-नहीं-पड़ता 
पर पहुँच कर ठहर गई थी मगर 
अब-मैं-ख़ुद-को-समझना-चाहती-हूँ 
ने हाथ थाम के आगे बढ़ाया मुझे और 
अब-ख़ुद-को-समझने-लगी-हूँ-मैं 
की राह पर चलने दिया।

ज़िंदगी,
बढ़ने लगी है फिर से और 
कहा करती है मुझसे कि 
मैं समझती हूँ तुम्हें क्यूँकि 
तुम एक औरत हो 
और तुम जैसा महाकाव्य…
सिर्फ़ मेरे जैसा कालिदास ही
पढ़-समझ सकता है। #knowingyourself

©Rashmi Sharma
  zindagi.....

zindagi..... #Quotes #knowingyourself

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