बिछड़ते बखत इन आँशुओ को इतनी शफ़क़त* रही, आँख से जो गिरी तो गालों पर हरक़त रही! निढ़ाल हो जा गिरी तकिये के लिहाफ़ पर, नमी मिट गई सुर्खियों में बरकत रही! आईना हम सुब्ह और क्या देख लेते, यूँ तराशा रात भर की मरकत* रही! थकन यूँ की लफ्ज़ भी बे जुबां हो गए, ये मेरे दिल को भी अब जेहन की रहमत रही! कोई यार नहीं इस इश्क़ के कारोबार में, हुस्न के सौदागरों से मिलने की सबको हसरत रही! मुसाफ़िर यूँ ही हर ख्वाइशों को दफ़न करता चल, ख़्वाब सब मिट गए ज़िन्दगी को ग़ुरबत* रही! शफ़क़त-स्नेह मरकत- पन्ना नामक रत्न ग़ुरबत- निसहाय