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ख्वाबों को मैंने भी सजाया था मगर वक्त ने मुझको रुल

ख्वाबों को मैंने भी सजाया था
मगर वक्त ने मुझको रुलाया था ।

वक्त के आगे एक ना चली थी
वक्त की बाढ़ में अपनो की बली चढ़ी थी ।

वक्त के आगे अपनी गर्दन झुकी थी
वक्त की आंधी में अपनी नीद उड़ी थी ।

ख्वाबों को मैंने भी सजाया था
मगर वक्त ने मुझको रुलाया था

ख़्वाब तो बस ख़्वाब रह गए
वक्त के सैलाब में हम बह गए

वक्त ने दी ऐसी चोट ना थी कोई आवाज़
ना था कोई शोर ।

ख्वाबों को मैंने भी सजाया था
मगर वक्त ने मुझको रुलाया था ।

©Jonee Saini
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