सभी कछुए निकलते जा रहे हैं। बने खरगोश हम सुस्ता रहे हैं। महज ठहराव है जो रास्ते का, उसे मंजिल नई बतला रहे है। महज समझो नहीं तुम शे’र इसको, हमारे दर्द को हम गा रहे हैं। बहुत हैं हंस भारत में मगर ‘मन’, चतुर कौए ही मोती खा रहे हैं। बहुत लड़के हमारी उम्र के, समय को व्यर्थ में गंवा रहे हैं। पकड़ ऊंगली जिन्हें चलना सिखाया, वही आँखें हमें दिखला रहे हैं।