बाँझ उम्मीद की कोई सुबह नही, बस ढलती हुई एक सांझ हूँ मैं | है ममता दिल में भरी हुई , पर सच है ये की बाँझ हूँ मैं | हूँ बहिस्कृत हर मंगल अवसर में, है नजर चुराते आज सभी | हूँ तृस्कृत मैं इस समाज में, थी लक्ष्मी रूपी नाज कभी | सौभाग्य कभी मैं उनके घर की, अब बनी क्यों दाग हूँ मैं | कई अरमानो की बोझ उठाये, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं | नहीं कंही झूला है कोई , नहीं कंही कोई किलकारी है | क्या जिस पौधे में फूल नहीं, वो बस कंटीली झारी है | है ईश्वर का निर्माण ही ऐसा , मैं नहीं कोई अपराधी हूँ | है प्रेम भरा इस हिर्दय में मेरे , फिर भी मैं क्यों आधी हूँ | कई सपनो की चिता जलाती, धदक्ति हुई एक आग हूँ मैं | अन्धकार को गले लगाए, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं | जननी का तूने रूप दिया, क्यों सिर्जन का अधिकार नहीं | भाग्य ने है मजबूर किया , पर ये मेरा अपराध नही | जीना बहुत कठिन सा लगता , मिर्तुय भी देती साथ नहीं | मैं जीवित रहूँ अब बोलो कैसे, जब अपने ही मेरे साथ नहीं | दुनिया के इस शोरगुल में , कही सिसकती सी आवाज़ हूँ मैं | तुम सुन ना सको वो साज हूँ मैं, हाँ सच है ये की बाँझ हूँ मैं || रचना : गिरीश "स्याही" Baanjh